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चाँदनी, ओ री चाँदनी / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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चाँदनी, ओ चाँदनी री!
स्वच्छ-निर्मल-नील नभ के
सिन्धु की ओ लहर फेनिल!
तू चतुर्दिक के अनन्त
असीम कूलों से सतत् मिल
मुसकराती, किन्तु क्यों पथ भूलती उन्मादिनी री॥1॥

स्वर्ग-सागर से उतर क्यों
आ रही इस लोक में तू?
विश्व-सागर की तरंगों
में सिमिट क्यों खेलती तू?
ये तरंगें तो स्वयं उस स्वर्ग की अभिलाषिणी री॥2॥

धो रही तू विहँस निशि की
विश्व-व्यापी कालिमा सब;
पर तनिक-सा दाग तेरे
चाँद का निशि धो सकी कब?
है यही संसार, भूल न अमर लोक विहारिणी री॥3॥

अंक में तेरे भरे हैं
झलमलाते रत्न उज्ज्वल;
कलश अमृत का लिये
बरसा रही अमरत्व शीतल।
पी सुधा तेरा, अमर यह शरद् की मधुयामिनी री॥4॥

उच्च शिखरों को मिला है
झलमलाता हार तेरा;
निम्न रेतीले कणों में
भी छलकता प्यार तेरा।
खेलती मिल सलिल से तू, मौन कल-कल हासिनी री॥5॥

ओ शरद् ऋतु की अमर
उज्ज्वल-धवल-शीतल पताका!
तू अमृतमय मधुर स्मारक
शरद् की निर्मल निशा का।
अमर-लोक-निवासिनी, कल-हासिनी, सुविकासिनी री॥6॥