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चाँदनी रात में शानों से ढलकती चादर / साबिर दत्त

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चाँदनी रात में शानों से ढलकती चादर
जिस्म है या कोई शमसीर निकल आई है

मुद्दतों बाद उठाए थे पुराने काग़ज़
साथ तेरे मिरी तस्वीर निकल आई है

कहकशाँ देख के अक्सर ये ख़याल आता है
तेरी पाज़ेब से ज़ंजीर निकल आई है

सेहन-ए-गुलशन में महकते हुए फूलों की क़तार
तेरे ख़त से कोई तहरीर निकल आई है

चाँद का रूप तो राँझे की नज़र माँगे हैं
रेन-डोली से कोई हीर निकल आई है