चाँदी की उर्वशी न कर दे / रामावतार त्यागी
चाँदी की उर्वशी न कर दे युग के तप संयम को खंडित 
भर कर आग अंक में मुझको सारी रात जागना होगा ।
मैं मर जाता अगर रात भी मिलती नहीं सुबह को खोकर
जीवन का जीना भी क्या है, गीतों का शरणागत होकर,
मन है राजरोग का रोगी, आशा है शव की परिणीता 
डूब न जाये वंश प्यास का पनघट मुझे त्यागना होगा ॥
सपनों का अपराध नहीं है, मन को ही भा गयी उदासी 
ज्यादा देर किसी नगरी में रुकते नहीं संत सन्यासी  
जो कुछ भी माँगोगे दूँगा ये सपने तो परमहंस हैं 
मुझको नंगे पाँव धार पर आँखें मूँद भागना होगा ॥
गागर क्या है - कंठ लगाकर जल को रोक लिया माटी ने
जीवन क्या है - जैसे स्वर को वापिस भेज दिया घाटी ने,
गीतों का दर्पण छोटा है जीवन का आकार बड़ा है 
जीवन की खातिर गीतों को अब विस्तार माँगना होगा ॥
चुनना है बस दर्द सुदामा लड़ना है अन्याय कंस से
जीवन मरणासन्न पड़ा है, लालच के विष भरे दंश से 
गीता में जो सत्य लिखा है, वह भी पूरा सत्य नहीं है
चिन्तन की लछ्मन रेखा को थोड़ा आज लाँघना होगा ॥
 
	
	

