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चाँद-दराँती / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
Kavita Kosh से
331
बीते जो साल
काँटों भरा था जंगल
हाल-बेहाल।
332
दर्द आया है,
इसीलिए तय है
चला जाएगा ।
333
मुश्किलें लाते
दर्द ऐसे अतिथि
देर में जाते ।
334
चाँद-दराँती
काटे रात भर
मेघों का खेत ।
335
डाँटे जीभर
ये गुस्सैल बिजली
नभ में दौड़े।
336
भिड़ते मेघ
मरखने साँडों-से
नभ कुचलें।
337
मन पावन
अमृत से है भरा
तृप्त जीवन।
338
मन सागर
व्याकुल हैं लहरें
कभी न सोएँ ।
339
झुका है सर
खुद बखुद जहाँ
मन्दिर वहाँ ।
340
सिर झुकाया
जब बुत के आगे
तू याद आया।
341
सिर टिकाएँ,
किसके काँधे पर,
आँसू बहाएँ !
342
ख़त्म हैं मेले,
सूनी हुई गलियाँ,
हम अकेले !
343
कितना छल !
वे ही बने क़ातिल
पोसे जो कल।
344
ख़ाली हैं हाथ,
परछाई है साथ,
साथी न कोई ।
345
दूर उजाला
शायद तुम ही हो
कब आओगे ?