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चाँद-सूरज की तरह बढ़ते रहे / ब्रह्मजीत गौतम

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चाँद-सूरज की तरह बढ़ते रहे
ज़िन्दगी की मूर्ति हम गढ़ते रहे

प्यार के मानी समझ पाये नहीं
बेसबब ही पोथियाँ पढ़ते रहे

मर गया वो मुफ़्लिसी में चित्रकार
चित्र जिसके स्वर्ण से मढ़ते रहे

भाइयों में यों तो थीं नज़दीकियाँ
पर दिलों में फ़ासले बढ़ते रहे

कर हमें उपयोग सीढ़ी की तरह
वे प्रगति की मंज़िलें चढ़ते रहे

रौंद डाला मालियों ने ही चमन
आँधियों पर तुह्¬मतें मढ़ते रहे

 पश्चिमी तहज़ीब को क्या दोष दें
'जीत' हम ख़ुद उस तरफ़ बढ़ते रहे