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चाँद का टुकड़ा न सूरज का नुमाइन्दा हूँ / बशीर बद्र
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चाँद का टुकड़ा न सूरज का नुमाइन्दा हूँ
मैं न इस बात पे नाज़ाँ हूँ न शर्मिंदा हूँ
दफ़न हो जाएगा जो सैंकड़ों मन मिट्टी में
ग़ालिबन मैं भी उसी शहर का बाशिन्दा हूँ
ज़िंदगी तू मुझे पहचान न पाई लेकिन
लोग कहते हैं कि मैं तेरा नुमाइन्दा हूँ
फूल सी क़ब्र से अक्सर ये सदा आती है
कोई कहता है बचा लो मैं अभी ज़िन्दा हूँ
तन पे कपड़े हैं क़दामत की अलामत और मैं
सर बरहना यहाँ आ जाने पे शर्मिंदा हूँ
वाक़ई इस तरह मैंने कभी सोचा ही नहीं
कौन है अपना यहाँ किस के लिये ज़िन्दा हूँ
(१९७०)