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चाँद छुपाना बाकी है / सुनील कुमार शर्मा
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					चाहता रहा कुछ ना कुछ
निकल ही ना पाया बिन चाहे
एक भी दिन 
ना आज गुजरा 
ना कल निकल पाया 
कभी छोटी इच्छा, 
मझोली इच्छा तो 
इच्छा बड़ी कभी
ललचाती रही 
इच्छाओं में डूबा गले तक...
और संग समय भी
कैद में वासनाओं की 
छटपटाता रहा
जीवन से लम्बी इच्छाओं के
जाल से ना मन निकला
ना मैं निकल पाया। 
लादे इच्छाओं का गगन 
घर, ऑफिस पास-पड़ोस 
में बड़बड़ाता रहा ...
एक इच्छा कोने से 
चिल्लाती है 
कल चाँद चुराना बाकी था 
बस आज चाँद छुपाना बाकी है। 
और लगता है 
बाकी है अभी भी, 
कामनाओं का यौवन 
में पूरा-पूरा बसंत आना 
पर अंतस कहता है 
बाकी है पतझड़ में शून्य
का ले आना सन्तोष छटांक भर 
तृप्ति मुठ्ठी भर
	
	