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चाँद ढलता जा रहा है / रामगोपाल 'रुद्र'
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रश्मियों के मूर्त स्वर पर
मुग्ध हैं मृग-दृग-कुमुद-सर;
शशिप्रभा की मूर्च्छना से नभ पिघलता जा रहा है!
पालती बाती हिये में
साधना जलती दिये में;
वेदना की वेदिका पर मोम गलता जा रहा है!
स्वप्न घुल-घुल ढुल रहा है,
सत्य धुल-धुल खुल रहा है;
दीप बुझता जा रहा है, घर उजलता जा रहा है!