चाँद पर हमारा हिस्सा / मनोज कुमार झा
पराए ही रह गए पैर जो चले चाँद पर
साथ गई तो थी हमारे पसीने की भी भाप।
अगम गम हुआ, हमें क्या मिला
छला ही इस बड़ी छलाँग ने
अधिक उदार थी वनरकूद।
पुत्रों को सपरिवार पड़ा जाने के बाद माटी अगोर रही
जिद्दी कुम्हारिन नहीं जानती
चौठचंद्र पर निखोट दूध बेचने का व्रत निबाह रही
बूढ़ी ग्वालिन नहीं जानती
माँ नहीं जानती
सौंप रही आँचल से ढाँप चुह-चुह कर जामन
नहीं जानते सफेद फूल चुन रहे पेटहा पंडित
कि चाँद की ओर उठे लाल टुह-टुह मटकूरों पर
लगी है बहुतेरी व्याध-दृष्टियाँ।
चाँद से मरासिम बड़े पुराने हामिद मियाँ के
पड़ गए हैं कुछ चाँदमार इनके भी पीछे
हर साल पेट काट जमा करते हैं मुट्ठी मुट्ठी
बाँट दे ईदी तो अपने हाथ बचे सिर्फ सल्फॉस की टिकिया
जिन्हें यह फिर से लौटाया करे
जिए चले जाने की कोठार में।
चन्द्रोन्मादियों ने पटका है मृगछाल धरती पर
जहाँ से उठा रहा था काँपते हरे पत्तों का संगीत
हरापन पर आरोप कि यह कभी भी दे सकता है बाँग
चाँद से सब का है खून का रिश्ता
जंगल के दिनों से ही कि जब यह
देह में घुला करता था पानी के संग।
तुम भी तो इधर ही हुए हो धनबिलाड़
पहले तो हम साथ कदकते थे बनबिलाड़।
चाँद खींचता है हम सबको बराबर-बाराबर
इस खिंचाव से खेलने का हुनर सिरजने वाले तो
हमारे भी थे
ताकत की चाक पर घुमाते-घुमाते तुम ने बिगाड़ दिया
हुनर की लय
ओर मत बिगाड़ो...
अधिक गुणा करोगे ताकत से तो अँधेरे में बिला जायेगा गुणनफल।
यह कैसी जमीन है जो बसने के लिए नहीं मात्र बेचने के लिए खरीदी जाती है!
या सचमुच चाँद के काँधे पर कर रहे घर
तो हमारे भी नाम लिखो दो-दो धूर
आदमी दौड़ सकता है बहुत तेज वहाँ
दौड़ना तो सनातन कामना गुरुत्व से छूटने की
गुरुत्व का हाथ धरकर
खुल जाए शायद अंग-विकल भाई की गति की गाँठ।
हम फिर से बनेंगे हिरणयूथ और साथ-साथ
थिरकेंगे हमारे पैर
ऊखलों की पाँत में मूसलों का धमधम
पूरन-पात पर जलकण टपटप
काग़ज की चौड़ी हथेली पर लाख-लाख
निबों की टिपटिप
सब एक दूसरे का संगतकार
कोई नहीं लगा किसी को पछुआने में।
जीन-शास्त्री कुछ कहो कि जैतुन की टहनियों पर
उग रहे मात्र कनक
सभ्यता-संघर्ष के गुणकीलक सोचो
कि हिरणों के झुंड से टूटकर क्यों पैदा हो जाते हैं
एकरबा वानर
स्वप्न-समीक्षक कुछ करो
कि आधी रात में मेरा भाई चहा कर उठता है लथपथ
कोई खींच रहा उसके शरीर का लहू द्रुतधावकों की शराओं के लिए