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चाँद में कैसा गहन है / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
चाँद में कैसा गहन है ?
पूछता मुझसे गगन है ।
मैं विकल यह जानने में
क्या खुशी, क्या पीर मेरी ?
क्यों रुलाती रात मुझको
दिन मेरे पीछे अहेरी ?
आँख मूंदे देखता क्या,
मौन हो किसको पुकारूं !
अक्षरों में भाव कैसा,
अर्थ भर-भर कर सँवारूं !
क्यों रुदन अपना लगा है,
देश सुमधुर है, इमन है ।
आज तक न जान पाया
अर्थ, जीवन की पहेली,
लोक सारे घूम आया
हाथ में लेकर अधेली;
सौध में मैं सो न पाया
लौट आया सर झुका कर,
अब अकेला रह रहा हूँ
घाट पर ही घर बना कर ।
डूबने का डर सताए,
सामने तारन-तरन है ।