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चाँद सँग् नदी / संतोष श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
साँझ की उदास नदी में
जाती हुई नावों की आखिरी कतार
बिछल गया है अँधेरा
लहरों की रेशमी बिछावन पर
हवाएँ थरथराती नदी तक दौड़ी है
नदी की देह काँपी है
उस कंपन में एक आग है
नदी आग का घूंट पी
चांद को बाहों में लेने को आतुर है
पूनम का चांद
लहरों पर उतर आया है
आग का शोला बन
नदी का गर्भ आग से भर उठा है
रेत के कछारों में
रेत के घरौंदों में
रेतीले तटों में
उत्सव है आग का
आग के सुख में डूबी नदी
बूंद-बूंद उमड़ी है चांद की बाहों में
अंतिम बार प्रणयातुर
दहक उठी है पूर्व की दिशा तक
धीरे धीरे शांत मंथर नदी
निस्तेज चांद
भोर के सूरज संग
पीड़ा अशेष