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चांणक का अंग / कबीर

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इहि उदर कै कारणे, जग जाच्यों निस जाम ।
स्वामीं-पणो जो सिरि चढ्यो, सर्‌यो न एको काम ॥1॥

भावार्थ - इस पेट के लिए दिन-रात साधु का भेष बनाकर वह माँगता फिरा,और स्वामीपना उसके सिर पर चढ़ गया । पर पूरा एक भी काम न हुआ - न तो साधु हुआ और न स्वामी ही ।

स्वामी हूवा सीतका, पैकाकार पचास ।
रामनाम कांठै रह्या, करै सिषां की आस ॥2॥

भावार्थ - स्वामी आज-कल मुफ्त में,या पैसे के पचास मिल जाते हैं, मतलब यह कि सिद्धियाँ और चमत्कार दिखाने और फैलाने वाले स्वामी रामनाम को वे एक किनारे रख देते हैं, और शिष्यों से आशा करते हैं लोभ में डूबकर ।

कलि का स्वामी लोभिया, पीतलि धरी खटाइ ।
राज-दुबारां यौ फिरै, ज्यूँ हरिहाई गाइ ॥3॥

भावार्थ - कलियुग के स्वामी बड़े लोभी हो गये हैं,और उनमें विकार आ गया है, जैसे पीतल की बटलोई में खटाई रख देने से । राज-द्वारों पर ये लोग मान-सम्मान पाने के लिए घूमते रहते हैं, जैसे खेतों में बिगड़ैल गायें घुस जाती हैं ।

कलि का स्वामी लोभिया, मनसा धरी बधाइ ।
दैंहि पईसा ब्याज कौं, लेखां करतां जाइ ॥4॥

भावार्थ - कलियुग का यह स्वामी कैसा लालची हो गया है !लोभ बढ़ता ही जाता है इसका । ब्याज पर यह पैसा उधार देता है और लेखा-जोखा करने में सारा समय नष्ट कर देता है।

`कबीर' कलि खोटी भई, मुनियर मिलै न कोइ ।
लालच लोभी मसकरा, तिनकूँ आदर होइ ॥5॥

भावार्थ - कबीर कहते हैं - बहुत बुरा हुआ इस कलियुग में, कहीं भी आज सच्चे मुनि नहीं मिलते । आदर हो रहा है आज लालचियों का, लोभियों का और मसखरों का ।

ब्राह्मण गुरू जगत का, साधू का गुरू नाहिं ।
उरझि-पुरझि करि मरि रह्या, चारिउँ बेदां माहिं ॥6॥

भावार्थ - ब्राह्मण भले ही सारे संसार का गुरू हो, पर वह साधु का गुरु नहिं हो सकता वह क्या गुरु होगा, जो चारों वेदों में उलझ-पुलझकर ही मर रहा है ।

चतुराई सूवै पढ़ी, सोई पंजर माहिं ।
फिरि प्रमोधै आन कौं, आपण समझै नाहिं ॥7॥

भावार्थ - चतुराई तो रटते-रटते तोते को भी आ गई, फिर भी वह पिंजड़े में कैद है । औरों को उपदेश देता है, पर खुद कुछ भी नहीं समझ पाता ।

तीरथ करि करि जग मुवा, डूँघै पाणीं न्हाइ ।
रामहि राम जपंतडां, काल घसीट्यां जाइ ॥8॥

भावार्थ - कितने ही ज्ञानाभिमानी तीर्थों में जा-जाकर और डुबकियाँ लगा-लगाकर मर गये जीभ से रामनाम का कोरा जप करने वालों को काल घसीट कर ले गया ।

`कबीर' इस संसार कौं, समझाऊँ कै बार ।
पूँछ जो पकड़ै भेड़ की, उतर्‌या चाहै पार ॥9॥

भावार्थ - कबीर कहते हैं--कितनी बार समझाऊँ मैं इस बावली दुनिया को ! भेड़ की पूँछ पकड़कर पार उतरना चाहते हैं ये लोग ![अंध-रूढ़ियों में पड़कर धर्म का रहस्य समझना चाहते हैं ये लोग !]

`कबीर' मन फूल्या फिरैं, करता हूँ मैं ध्रंम ।
कोटि क्रम सिरि ले चल्या, चेत न देखै भ्रम ॥10॥

भावार्थ - कबीर कहते हैं - फूला नहीं समा रहा है वह कि `मैं धर्म करता हूँ, धर्म पर चलता हूँ, चेत नहीं रहा कि अपने इस भ्रम को देख ले कि धर्म कहाँ है, जबकि करोड़ों कर्मों का बोझ ढोये चला जा रहा है !