चांदनी रात के / राकेश खंडेलवाल
ढूँढ़ते ढूँढ़ते थक गई भोर पर
मिल न पाये निमिष चाँदनी रात के
डायरी के प्रथम पॄष्ठ पर था लिखा
नाम जो, याद में झिलमिलाया नहीं
तट पे जमुना के जो थी कटी दोपहर
चित्र उसका नजर कोई आया नहीं
बूटे रूमाल के इत्र की शीशियाँ
फूल सूखे किताबों की अँगनाई में
चिन्ह उनका नहीं दीख पाता कोई
ढल रहे एक धुंधली सी परछाईं में
उँगलियों से हिना पूछती रह गई
कुछ भी बोले नहीं कंगना हाथ के
पॄष्ठ इतिहास के फड़फड़ाते रहे
कोई गाथा न आई निकल सामने
तट समय सिन्धु का पूर्ण निर्जन रहा
चिन्ह छोड़े नहीं हैं किसी पाँव ने
ओढ़नी से गगन की सितारे झड़े
और कोहरा क्षितिज पर उमड़ता रहा
भाग्य शिल्पी लिये भौंथरी छैनियाँ
एक प्रतिमा का आकार गढ़ता रहा
और बुनती अमावस रही फिर निशा
दीप की बातियों पर धुआँ कात के
क्यारियों में दिशाओं की बोते रहे
बीज, उग आयेंगी रंग की कोंपलें
साध सिन्दूर सी, केसरी कामना
सुरमई कल्पनाओं की कलिया खिलें
सींचे थी भावनाओं की मंदाकिनी
पर दिशा जोकि बंजर थी बंजर रही
रेख पतली सी संशय की जो एक थी
ऐसी उमड़ी कि बन कर समन्दर बही
नागफ़नियों के छोरों पे टिक रह गये
जितने सन्दर्भ थे सन्दली गात के
और बस ढूँढ़ती रह गई भोर नित
खो गये मित्र सब चांदनी रात के