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चांदी के तार / देवेन्द्र कुमार
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कहाँ गए वे दिन रोबीले !
रात उदासी के जंगल में
ये चांदी के तार कँटीले ।
रेजा-रेजा, गाहे-गाहे
पीठ-पीछे चुगली खाते
घर-आंगन, रस्ते-चौराहे
तुम कब के थे चांद हठीले ।
वही सुबह है, वही शाम है
फिर भी कैसी ताम-झाम है
पेड़ों के रहते पतझर में
पत्तों का जीना हराम है
मौसम के अनुदार कबीले ।
बाहर-भीतर की तन्हाई
अलसी की नीली आँखों में
देखी सागर की गहराई
हुए हाथ सरसों के पीले ।