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चांद और तुम / महेन्द्र भटनागर

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अपनी छत पर खड़ी-खड़ी तुम
भी देख रही होगी चांद !

शीतल किरनों की बरखा में
तुम भी आज नहाती होगी,
बड़री अँखियों से देख-देख
आकुल मन बहलाती होगी,
और अनायास कभी कुछ-कुछ
अस्फुट-स्वर में गाती होगी,

तुमको भी रह-रह कर आती
होगी आज किसी की याद !

अपने से ही मधु-बातें तुम
भी करने लग जाती होगी,
बाहें फैला अनजान किसी
को भरने लग जाती होगी,
फिर अपने इस पागलपन पर
अधरों में मुसकाती होगी,

तुममें भी उन मिलन-पलों का
छाया होगा री उन्माद !

तुम भी हलका करती होगी
यह भारी-भारी-सा जीवन,
तुम भी मुखरित करती होगी
यह सूना-सूना-सा यौवन,
खोयी-खोयी-सी व्याकुल बन
तुम चाह रही होगी बंधन,

तुमने भी इस पल सपनों की
दुनिया की होगी आबाद !