भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चांद के प्रति एक गीत / फ़ेदेरिको गार्सिया लोर्का / सुरेश सलिल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सफ़ेद कछुए
सोए हुए चाँद
कितना धीमे चलते हो तुम !
बन्द किए हुए अपनी एक मायावी पलक
घूरते हो तुम एक पुरातात्त्विक पुतली की भाँति
शैतान की एक आँख वाली पुतली की भाँति भी...
शायद यह कोई स्मृतिचिन्ह है
अराजकों के लिए विषद पाठ।

दुश्मन-सैनिकों के छोटे सिर और मुर्दा आँखें
अपने प्रान्तरों में बोना येहोवा का स्वभाव रहा है ।
भावहीनता की मनहूस पगड़ी पहने हुए
वह पवित्र फ़ेज़ शहर<ref>मोरक्को की एक धार्मिक नगरी, तुर्की टोपियाँ यहीं बनती थीं।</ref> का बादशाह है
भोर के भूरे कौए की ओर
      लुभावने निर्जीव तारे उछालता ।

और यही वजह है, चाँद !
सोते हुए चाँद !
कि तुम उस निरंकुश येहोवा के दुर्व्यवहार का
विरोध किए जाते हो,
जो वही घिसी-पिटी राह मुहैया कराता है तुम्हें
जबकि स्वयं अपनी प्रियतमा
महिमामयी मृत्यु के साथ ऐश करता है ।...

सफ़ेद कछुए !
सोते हुए चाँद !
सूर्य के विशुद्ध गमछे<ref>ईसा मसीह को सलीब पर चढ़ाते वक़्त उनके भक्तों द्वारा उन्हें मुँह पोंछने के लिए दिया गया कपड़ा। </ref>,
तुम जो हर शाम पोछते हो
उसका तमतमाया चेहरा
उम्मीद रखो, मृत तारे !
तुम्हारे लोक का महान लेनिन
सप्तर्षिमण्डल होगा ।

आकाश का वह उद्दण्ड पशु
शान्त मन से देगा विदाई सलामी
उस विराटकाय बूढ़े आदमी को छह दिनों तक।
और तब, श्वेत चन्द्र !
आएगी विशुद्ध राख की बादशाहत।

(जहाँ तक मेरी बात है,
मैं तो शून्यवादी हूँ,
तुमने भली-भाँति ग़ौर किया है ।)

अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल

शब्दार्थ
<references/>