चांद : आज अर काल / रावत सारस्वत
जुगां-जुगां तक किसन कन्हैया
बाल हठीला, ठिणक-ठिणक कर
रया मांगता चांद खिलूणो।
पण बापड़ी जसोदावां के करती
भर-भर जळ रा ठांव, दिखा कर
झूठ-मूठ रा चांद, भुळाती, लाल मनाती।
पण अब धन-धन भाग धरण रा
काल, जसोदावां जुग री घर हरख मनासी
गोदी में ले किसन लाडला
चांदड़लै रै देस रमासी
सुपनां री परियां नैं सांप्रत-
गिगन-झरोखै बैठ बुलासी, नाच नचासी।
जुगां-जुगां रा भरम टूटसी
आंधा बिसवासां गढ़ भिळसी
चरखा और डोकर्यां गुड़सी
सींगाळा मिरधा भी रुळसी
मामो चांद दिसावर जासी
अब टाबरिया क्यूं बिलामासी!
भेद प्रकटसा अब सदियां रा
पोथां और पुराणां रा सै
उपमा और कल्पनावां सै कूड़ी होसी
चांद लोक रा गढ़-गढ़ लिख्या गपोड़ा
अब तो चौड़ै आसी।
धरती रा जायां रो धूंसो
बण बादळ री गाज घमकसी
चांदड़लै में मिनख जात री धजा फरकसी
देवो-देव-परी सब लुळ-लुळ मुजरा करसी।