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चाऊ माऊ बेहद खाऊ / भूपनारायण दीक्षित
Kavita Kosh से
चाऊ-माऊ बेहद खाऊ उनकी भूख अपार,
चीजें बहुत उन्होंने खाईं पर ली नहीं डकार।
खाए पर्वत, खाए दर्रे, खाए जंगल रूख,
खाया भोला भाला तिब्बत, तब भी गई न भूख।
चीनी जनता की आज़ादी खाई, खाई जान,
सिर खाया परसों नेहरू का खाए उनके कान।
कुतर-कुतरकर वे भारत की खाते रहे जमीन,
जब हमने रोका, तब दौड़े ले-लेकर संगीन।
क्या-क्या खाया, कितना खाया, इसका कौन शुमार,
इस पर भी चाहते हिमालय का करना आहार।
उस पर दाँत लगे तो जानो गई बत्तीसी टूट,
रहे अभी तक हम गम खाते, अब न मिलेगी छूट।
-साभार: हीरोज पत्रिका, इलाहाबाद