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चाकू की नोक पर / सांवर दइया
Kavita Kosh से
वैसे उसके बसंत को
बसंत कहना गलत होगा
क्योंकि
उसने न तो
हरे-भरे गदराये वृक्ष देखे
न फूल चखे
न सूंघे फूल
न चिड़िया चहचहायीं
न फूटी कोई गंध ही वहां
लेकिन श्रीमान !
वर्श के एक खास ॠतु का नाम
बसंत है
अतः हे सभ्यजनों !
(आपके लिए यह संबोधन मेरा है, उसका नहीं)
बसंत की बीस खाइयां फांदकर
इस बाग को
ठहरिए
इस बाग की जगह
जंगल कहना अधिक उपयुक्त होगा
(वह तो जंगल ही कहता है इसे)
हां तो इस जंगल को
समझने लायक हुआ है
जब से वह
तब से
यह हर बात का फैसला
चाकू की नोक पर चाहता है !