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चाक का घेरा / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल
Kavita Kosh से
तुम्हारा न आना भी कष्टदायी है
तुम्हारा जाना भी कष्टदायी है
साथ रहती हो
तो लहर-सी बहती हो
जो भी पकड़ता हूँ
पोरों से रीत जाता है
हर क्षण
ऐसे ही बीत जाता है
कितनी तस्वीरें जमा करूँ
कितने खाने भरूँ
अब तो दिमाग भी
ठसठसाने लगा है
बार-बार वही गीत सुनकर
गुनगुनाने लगा है
मेरी बाँहों में रहकर भी दूर हो
अपनी मर्यादाओं से मजबूर हो
निकला जा रहा है सुख का स्वण-मर्ग
खड़ी हो फिर भी
स्तब्ध-सी
उठाओ ना कोई कदम
चाहे, लाँघने को घेरा
आवाज तो दो कम से कम
पुकारो कि चाहिए तुम्हें
सोने का हिरण
सूर्य की किरण
खोल दो खिड़कियाँ
खोल दो दरवाजे
आने दो अंदर
प्यार को
बैठने दो किसी एक कोने में
इतनी जगह तो होगी
फिर तो बसंत
अपने आप हिला देगा
चटकाएगा रोम-रोम
सूखी हुई टहनी में भी
फूल खिला देगा।