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चानडुबी / दिनकर कुमार
Kavita Kosh से
नीले पहाड़ को चूमकर
हवा ने मेरे चेहरे पर
बिखेर दिया नीलापन
पानी में काँपती रही
तुम्हारी परछाई
मलाहिन अकेले ही
चप्पू चलाती रही
नाव में उछलती रही
रंग-बिरंगी मछलियाँ
चानडुबी<ref>असम की एक झील</ref> की ख़ामोशी
इस कदर गहरी थी
जैसे वह ठोस बन गई हो
और पत्ते गँवा चुके पेड़
प्रार्थना कर रहे थे
तुमने सिर्फ़ आकृति देखी थी
चानडुबी पहुँचने से पहले
पहचान पाई थी बाहरी रंग
चानडुबी ने तुम्हें खोल दिया
पुरानी गाँठ की तरह
और तुमने मुझे महसूस किया
जीवन्त धड़कन की तरह
अनाम फूल की गंध की तरह
और चानडुबी तुम्हारी आँखों में
झिलमिलाती रहेगी
मेरी कविता ।
शब्दार्थ
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