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चान्द का फूल / जानकीवल्लभ शास्त्री
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चान्द का फूल खिला ताल में गगन के।
दर्द की सर्द हवा ग़म की नमी में डूबी,
कसमसाहट की क़सम, है ज़मीं ऊबी ऊबी,
रक्त का रंग लिए सांस की सुगन्ध पिए,
प्राण का फूल खिला ताल में मरण के।
सुर्ख़ धागे में कसा, किन्तु तड़फड़ाता-सा,
सख़्त डण्ठल में बन्धा, किन्तु सर उठाता-सा।
सब्ज़ कोंपल में छुपा नर्म किरन में सिहरा,
प्यार का फूल खिला ताल में विजन के।
एक सुर कौन्ध गया, एक घटा-सी घुमड़ी,
आँखों-आँखों में लरज अजनबी व्यथा उमड़।
कुछ की धड़कन से कढ़ा, कुछ चढ़ा उसांसों पर,
गान का फूल खिला ताल में गगन के।
लक्ष्य गढ़ते रहे, रात कहीं और गई,
दिल गया और कहीं, आह कहीं और गई।
पंक के अंक पला, पर पड़ा न दलदल में,
ज्ञान का फूल खिला, ताल में लगन के।