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चापलूस / मानबहादुर सिंह
Kavita Kosh से
देख रहा हूँ तुम्हें कब से
अपनी पीठ से झाड़ते हुए
चाँदी की उस छड़ी की मार
जो उस आदमी के हाथ में है
जिसके गले में सोने की ज़ंजीर है ।
तुम्हारे मुँह में उसकी थूक भरी हँसी
झर रही है
जिसे चाट तुम्हारी जबान
ऐसी बुजदिल भाषा जन रही है
जिसे गोद में लिए कविता
शर्म से गड़ गई है ।
सच को नगदार अँगूठी से दिए
एक बीड़ा पान के साथ
चूने की तरह खा रहे हो
उसके थूके झूठ को अपने मुँह में रोप
अपनी बुद्धि को पीकदान बना रहे हो
कब से देख रहा हूँ तुम्हें --
तुम उसे हमेशा अपने पुट्ठे पर
महसूस करना चाहते हो
दगाए सरकारी साँड़ के निशान की तरह ।