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चायवाला / तरुण भटनागर

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रोज सुबह,
बिना नागा,
वह पहंुच जाता है,
नुक्कड़ वाले चौराहे पर बेचने चाय।
दो रूपये वाली उसकी चाय,
भगा देती है,
रात की बची नींद,
नींद का बचा असर।
लोगों को तैयार करती है,
नये दिन के लिए।
मिटाती है हुड़क,
हुड़क,
जिसकी गिरफ्त में कई लोग हैं,
उसके सिफर् एक कप के लिए।
बहुतेरों ने अपने रास्ते बदल लिये हैं,
वे अब,
नुक्कड़ वाले उस चौराहे से,
उसकी दुकान से गुजरते हैं।
बस एक मुट्ठी चेतना के लिए,
जरा सी मूछार् भगाने,
घोलने थोड़ी सी मिठास,
भगाने जरा सी थकान,
सोचने नये सिरे से,
बैठने साथ-साथ,
करने उत्तेजक वातार्लाप,
चलाने फिर से तेज कलम,
तेजी से निबटाने अधूरा काम,
सोच की भाल तेज करने,
भगाने उबासी, मनहूसियत,
हटाने अनचाही धंुध,
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उसकी दो रूपये की चाय,
बड़े दफ्तर, कचहरी, रेस्ट हाउस ़ ़ ़
आैर भी जाने कहां-कहां जाती है।
पर उसके पास हिसाब नहीं है,
कि,
उसने क्या-क्या किया।
वह बस बेचता है,
आैर शाम को हिसाब कर लेता है,
मुट्ठी भर सिक्कों का।