भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चाय पीवती मां / राजेश कुमार व्यास
Kavita Kosh से
जद
कनै नीं हुवै
आंख्या मांय
बसै मां।
छुट्टी आळे दिन
तावड़ै आवण तक
नीं जागै बिनणी
मां
नै कोई फरक नीं पड़ै
बैगी उठै
पण
बिस्तर नीं छोडै
डरै कठैई
हाको नीं हो जावै
चाय पीवण री हूंस होते थकै भी
बिनणी नै जगावै कोनी
बोली बाली उडीकै
बिनणी रै दिनूगै ने
घड़ी कानी सोधती
मांय सू सरमिजती
बिनणी उठै
कैवे
‘आज मोड़ो होयग्यौ
थानै चाय नीं दे सकी,
अणभार लावूं...’
चाय पीवती
मां साव कूड़ बोले
‘म्हारी आंख भी
आज
कीं
मोड़ी ही खुली।’