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चाय / रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति

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तुम चुप थीं और मैं भी चुप था
हमारे बीच चाय का कप था
धूप का सुनहरा रंग लिए
उसकी सुनहरी किनार पर
तुम्हारी आँखें चमक रही थीं

बहुत देर तक चाय
ज़िन्दगी की उपेक्षा में ठंडी होती रही
फिर तुमने उंगली से चाय पर जमी परत हटा दी
मैंने कप को उठा कर ओंठों से लगा लिया