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चारण काल में एक कविता / अरुणाभ सौरभ

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चू जाऊँगा
टपककर ज़रदालू आम की बून्द सा
टभक जाऊँगा
टाभ नीम्बू सा
खखोरकर फेंक दिया जाऊँगा पपीते के बीज सा
उतार दिया जाऊँ
लीची के छिलके सा
खोंट लिया जाऊँ
बथुआ साग सा
महाराज !

तुम्हरे द्वारे आनन्द में भरथरी गाने आ जाऊँगा
मिरदंगिया बन जाऊँगा
झाल की तरह बजता रहूँगा
तुम्हरे द्वारे हरि कीर्तन में
पमरिया नाच नाचूँगा मुड़े की छठी मे

महाराज !
नौकरी बजा दूँगा द्वारपाल की
या बिछ जाऊँगा गलीचे सा तुम्हरे फ़र्श पर

महाराज !
तमस में हाथी से कुचलवा देना
रही जात से बार देना

महाराज !
काली किरिया
बरम किरिया
देब किरिया
बिसहर किरिया
चारण ना बनूँगा तुम्हरी ....