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चारिम खण्‍ड / भाग 6 / बैजू मिश्र 'देहाती'

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रक्त वमन हो जखन कीश कर,
हैत नष्ट सभ दनुज समाज।
करू प्रवेश नगरमे निर्भय,
सफल हैब नहि अछि सन्देह।
हनुमत सुनि सभ बात लंकिनिक,
ताकए लगला गेहे गेह।
रावण केर महलहुँमे तकलनि,
कतहु छली नहि जनक दुलारि।
सगर राति तकिते रहि गेला,
बैसि गेला तरूपर मन मारि।
तखनहि नजरि गेल हनुमत केर,
एक निकेत लिखल श्रीराम।
आशा केर अंकुर छल उपजल,
दनुज पुरहुँमे एक सुठाम।
किछूए कालक बाद निकलला,
संत विभीषण रामक भक्त।
दनुज कुलक रहितहुँ सदस्य ई,
छल एकर आचार विरक्त।
मुँहमे राम हाथ फुल डाली,
चलल छला आनए फलफूल।
हनुमतकें विश्वास उपजलनि,
काज हैत हिनके सऽ मूल।
उतरि गाछ सोझामे अएला,
हनुमत सभ परिचय निज देल।
भेला प्रसन्न विभीषण सुनितहिं,
बजला भेंटि मुदित मन भेल।
भेटती सिया अशोकक वनमे,
रावण रखने छथि तहिठाम।
सदिखन पीड़ा उठा रहलि छथि,
सतत जपै छथि रामक नाम।
पता विभीषणसँ सुनि हनुमत,
गेला अशोकक वन तत्काल।
छपकि गाछपर बैसल रहला,
देखए लगला सिय केर हाल।
तखनहि रावण रथ चढ़ि आएल,
बहु राक्षस मन्दोदरि संग।
कहल सियाकें हमर बनू अहँ,
बदलि जैत लंका केर रंग।
मन्दोदरी चेरि भए रहती,
अहँकें देव पटरानिक स्थान।
कए उत्सर्ग अहाँ पर लंका,
अर्पित करब सकल सम्मान।
मस्तक नीचा कयने बजली,
सिया आत्मबल अपन जगाए।
भगयोगिनी नहि कमल फुलाबए,
दिनमणियें छथि तकर उपाए।
ताँ मदान्ध छह निज बल उपर,
राम आबि करथुन संहार।
बचाने सकतौ क्यो त्रिभुवनमे,
लिखलाहा छौ तोहर कपार।
भय क्रोधांध दसानन दौगल,
खड़्ग उठा मारए केर हेतु।
मन्दोदरी बीच भए रोकल,
कहल पाप नारी वध चेतु।
घुरल दसानन कहि प्रहरी दली,
दैत रहै जो कष्ट अपार।
मायाभ्यंतर मन ई बदलए,
नहि तऽ चढ़त खड़्ग केर धारं
प्रहरीमे छल एक राक्षसी,
त्रिजटा नामक बहु सज्ञान।
रातुक स्वप्नक कथा कहल ओ,
सभ प्रहरीकें सुनु दए कान।
देखल मारल गेला दनुज सभ,
भेला विभीषण लंका धीश।
कटल हस्त पग गदहा बैसल,
दक्षिण दिस जाइत दश शीसं
क्यो जुनि कष्ट दिअनि सीताकें,
हमर स्वप्न होयत ध्रुव सत्य।
शीघ्र राम लंका पर चढ़ता,
होयत युद्धक ताण्डव नृृत्य।
एकसरि छोड़ि सियाकें सभ क्यो,
बैसि गेली किछु दूर फराक।
तखनहि औंठी राम-नाम केर,
खसल सिया लग आबि धड़ाक।
सीताक उर बहु शंका उपजल,
आयल अछि ई बिना प्रसंग।
की छथि कुशल प्रभू अथवा नहि,
उठल भावना रंग विरंग।
चिंतित देखि सियाकें हनुमत,
तरूसँ उतरि ठाढ़ करजोरि।
कहलनि कथा जतेक छल पहिलुक,
केना प्रभुक संग लागल डोरि।
सीता विकल हदयसँ पुछलनि,
कोना रहै छथि प्राण अधार।
कहिया बंधन हमर हटौता,
करता दसमुख केर संहार।
प्राण विकल दरशन हित पलपल,
पल पल हुनि मुख कमलक ध्यान।
छट पट करइत अछि मन सदिखन,
कखन करब चरणोदक पान।
बहुत बुझा समझा सीताकें,
पवन पुत्र कयलनि हुनि शांत।
मायाभ्यंतर प्रभु चलि औता,
धीरज धरू ने होइ बड़ क्लांत।
भूखल छला बहुत अंजनि सुत,
कहलनि माँ किछु करू उपाए।
सीता कहल वाटिका बहुछै,
खाउ तोडि फल, देल देखाए।
मुदा बहुत चिंता अछि मनमे,
प्रहरी राक्षस सभ बलबंत।
छोट शरीर अहाँकेर लखिकऽ,
भय होइछ नहि कऽ दै अंतं
तखनहि हनुमत अंग बढ़ौलनि,
बना लेलनि पर्वत आकारं
सीताकें विश्वास करौलनि,
कए लेबै सबहक संहार।
कए प्रणाम माँ सियाकें, चलला श्रीहुनमान।
करए शांत पेटक जलन, देखबए बल अनुमान।
फल खाथि तोड़थि चढ़ि, निर्भय बनलके कहत की,
रखबार जे बाजल मरल क्यो माटि हुनकर सहि सकतकी।
सुनि खबरि दसमुख सैन्य युत अक्षय कुमारक दल पठाओल,
ओ एक केर पाछाँ सहस्त्रों राक्षसक जमघट लगाओल।
मुदा नहि क्यो बँचल सभ क्यो गेला पीसल,
छला हनुमान भोजन समयमे बाधाक रीषल।
पुनि पुनि उखाड़थि गाछ मारथि शत्रुदलकें।
कहैत सम्मुख ठाढ़ हनुमत अमित बलकें।
नहि सोचि सकला अक्षयहुँ यमलोक गेला,
सुनि खबरि क्रोधे अंध दसमुख विकल भेला।