चारिम मुद्रा / भाग 1 / अगस्त्यायनी / मार्कण्डेय प्रवासी
सिहकल शीतल पुरिबा बसात
ज्योत्स्नामय नभ जनु चन्द्रगात
अछि सुरभि नृत्यरत हेना-
तथा चमेली
महमहा रहल अछि मौलिश्री
गमगमा रहल चम्पाक कली
रूपक दर्पे दमकै अछि
बेला-बेली
बीतल अछि रातिक तीन पहर
गंगा घहरै’ अछि घहर-घहर
दूरस्थ निर्झरक स्वरमे-
अछि मादकता
किछुए क्षणमे अनलक पावस
बिजुरीक तीर, मेघक तरकस
पंचमित पिकी जनु बँटलक
रसराजकता
नाँचल आश्रममे आबि मोर
मिलनातुर तन मन अति विभोर
चाङुरीक तालपर मेघ-राग
मल्लारित
पसरल सभठाँ झिंगुरक गान
दु्रमलता एकमन, एकप्राण
वातावरणे भ’ गेल शुद्ध-
आषाढ़ित
टूलल अगस्त्य ऋषिकेर निन्न
नहि स्वप्न सत्यसँ आइ भिन्न
कामायित, केवल कामायित
साधकता
लगलनि जनु कामक क्षिप्र बाण
तन वीणापर संयोग तान
गुदगदी विलक्षण आ अजबे
आतुरता
लोपाक कक्ष दिस बढ़ल चरण
दर्शन सितारपर स्पर्श ध्वनन
बाकुटमे बाहु मूल, वाणी
जागृतिमयि
प्रस्ताव प्रकृति पुरुषक मिलनक
आकांक्षा प्रकट पुत्र सुमनक
इत्वरा काम चेतना पूर्ण-
आकृतिमयि
लोपासँ गुप्त न आमंत्रण
अति सुखद स्थितिक ई परिवर्त्तन
रोमांच, पुलक, आकर्षण
आ समरसता
शय्यापर श्वासक पुरुष गंध
परिचित सन संयोगानुबन्ध
बाजलि तथापि ‘‘त्यागू हे-
ऋषि, भावुकता
अछि संवेगित स्वर अति पगाढ़
नस नसमे अछि रति-पृषा धाह
ताण्डव करैछ तन मनमे-
कामोन्मुखता
चंचल अछि प्रस्तावक प्रभाव
उद्दाम हमर मातृत्व भाव
तनमे पत्नीत्व सजग, मनमे-
आतुरता
कयलहुँ अछि मुदा कठिनतर प्रण
पूर्त्तिक बादे सम्भाव्य रमण
नैहरे जकाँ वस्त्राभूषण-
चाहे’ छी
रागी क्षणमे राजसी सेज
राजसी त्वरा, राजसी तेज
चाहबे करी, ते आमंत्रण
टारै’ छी’’
उत्तर सुनि अति व्याकुल अगस्त्य
कहलनि: ‘‘जनिते छी हमर सत्य
ऋषि कुलमे पुष्पालंकरणे-
प्रचलित अछि
तप त्याग तुष्टि भावक सितार
झंकृत न करत राजसी राग
हे प्राणप्रिये! ऋषि एतदर्थ-
लज्जित अछि’’
लोपा बाजलि: ‘‘प्रण अटल हमर
चम्पा छी, दूरे रहू भ्रमर!
जीवन भरि सुरभि भारसँ-
मत्त रहब हम
चाही तँ बाटक नहि अभाव
नहि गुप्त अहँक मंत्रक प्रभाव
अर्पित क’ देत कुबेर तुरत
इच्छित धन
काँपैछ अहँक भयसँ भू-नभ
क्षणमे सम्भव सभ वस्तु सुलभ
कोनो राजा आदेश अहँक-
नहि टारत
ते हे ऋषिवर! पतिदेव हमर!
उपदेश न जीतत सेज समर
रमणी लोपा ऋषिकाक-
कुशासन त्यागत
अछि चिर अतृत्प हमरो तन मन
टूट’ चाहैछ नियम संयम
प्रण मुदा अटल अछि, व्यर्थ
विलम्ब करै’ छी
आचरण अहँक इच्छानुसार
करिते रहलहुँ अछि लगातार
जीवनमे प्रथम बेर किछु-
आइ मङै छी
नैहरक देल वस्त्राभूषण
पुरजनक मध्य अहँ सर्वप्रथम
बँटबौलहुँ भ’ अतिशय निर्मम
नहि बिसरू!
कवि कुलमे अछि अर्थक अभाव
अछि अकवि शिविर पर धन प्रभाव
हे ऋषि! वैषम्य विनाश हेतु
अहँ निकलू!
सीमित न प्रश्न लोपाधरि अछि
केन्द्रित सुख, दुःख विकेन्द्रित अछि
प्रतिभाक विकासक मार्ग रहै’ अछि-
बाधित
बौद्धिक श्रमके दारिद्रय योग
द’ क’ समाज कीनैछ रोग
युग-युगसँ अर्थ संतुलन
अछि आराधित
विज्ञान अहँक सामर्थ्य मुखर
साधना गगनधरि अछि सस्वर
सामाजिक ग्रह-नक्षत्र नमित
भ’ जायत
नहि सहत अनय भावी पीढ़ी
हे क्रान्ति पुरुष! हे मसिजीवी!
सर्जना क्षेत्र काहिल कहि क’
धिक्कारत
ते जागू, जिगृत गान करू
साधन जुटाउ, धन ध्यान करू
अक्षर चेतना बिलल्ला अछि,
कुंठित अछि
थाकल थाकल मानसाकाश
चाहैछ भोतिकी श्रुति प्रकाश
हृदयक औदात्य देह भूपर
लुंठित अछि’’
लोपाक शब्द सुमनक सुगंध
अति तीक्ष्ण, तदपि कार्यानुबन्ध
ऋषिकेर प्राण मनमे छन्दित
अनुमोदित
बिसरल वैयक्तिक मुक्ति काम
अभरल समूह स्वातंत्र्य गान
संकल्प अनेकानेक आत्म-
सम्बोधित
सभसँ पहिने लोपाक तृप्ति
तदनन्तर सामूहिक प्रदीप्ति
मनमे; निर्धारित कालबद्ध
कार्यक्रम
कहलनि: ‘‘लोपे! हम प्रण पूरब
भौतिक सुख स्वरके अनुकूलब
स्वार्थ सिद्धिप्रद बनत अगस्त्यक
आश्रम
आश्रमी व्यवस्था भार लिय’
यात्राक हेतु अवकाश दिय’
आवश्यक धन अर्जित क’
शीघ्रे आनब
अछि दान लेब अधिकार हमर
शिष्यक विराट संसार हमर
जीवनमे प्रथम बेर याचक
बनि माङब’
बढ़ि गेल मार्गपर ऋषिक डेग
देलक अभिमंत्रित वायु वेग
सम्राट-श्रुतर्वाधरि संवाद
प्रसारित
अतिशय आनन्दित राजमहल
बढ़ि गेल क्षणेमे चहल-पहल
मंगलमय ऋषि आगमनक
बात प्रचारित
राज्यक सीमापर स्वागत स्वर
मंत्रीक संग राजा तत्पर
सम्मानोचित नव स्वर्ण यान
सेवामे
साष्टांग नमन, पूजन, अर्चन
प्रासाद पवित्रीकरण- ध्वनन
आतिथ्य भाव साकार मधुर-
मेवामे
आशीष दान कयलनि ऋषिवर
यात्राक प्रयोजन भेल मुखर
कहलनि: ‘‘हे राजन! हम सोद्देश्य
चलल छी
चाही हमरा किछु सात्त्विक धन
आवश्यक अछि भौतिक साधन
हम एतदर्थ आश्रमके त्यागि
बढ़ल छी।