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चारोंदस भोन जाके रवा एक रेनु को सो / आलम

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चारोंदस भोन जाके रवा एक रेनु को सो,
                सोई आजु रेनु लावै नन्द के अवास की ।
घट-घट शब्द अनहद जाको पूरि रह्यो,
                तैई तुतराइ बानी तोतरे प्रकास की ।
'आलम' सुकवि जाके त्रास तिहुँ लोक त्रसै,
                तिन जिय त्रास मानी जसुदा के त्रास की ।
इनके चरित चेति निगम कहत नेति,
                जानी न परत कछु गति अविनास की ।