चारो ओर घना अँधियारा नन्हा दीप जला लेती हूँ / रंजना वर्मा
चारो ओर घना अँधियारा नन्हा दीप जला लेती हूँ ।
मन की सोयी आकांक्षाओं को संगीत सुना लेती हूँ।।
थक जाता है मन बेचारा जीवन-गीत सुनाते गाते
बैठ अकेली कोने में तब छुपकर अश्रु बहा लेती हूँ।।
बरसों का सामान सहेजूँ क्यों जब साथ न कुछ जायेगा
मोह न जर अब इस दुनियाँ से मन को मैं समझा लेती हूँ।।
प्रसव वेदना सह माँ जैसे शिशु को जन्म दिया करती है
जब जब हूँ मैं कलम उठाती भोग वही पीड़ा लेती हूँ।।
ब्रह्म अखिल परमेश्वर आता राम बना शबरी के द्वारे
बेर प्रणय के जूठे दे कर मन से उसे रिझा लेती हूँ।।
जग के पापों को धो धो कर निर्मल गंगा मलिन बन गयी
पंकिल जल से ले कर शिक्षा डुबकी स्वयं लगा लेती हूँ।।
जिस पर बैठे उसी डाल को काटें कालिदास के वंशज
पर मेरे आँगन जो पनपा मैं वह नीम बचा लेती हूँ।।
मेरी सुधियों के आँगन नित सदा सुहागिन महका करती
यद्यपि श्वेत वसन में अपना मुखड़ा आज छुपा लेती हूँ।।
मेरी श्वांसों के चन्दन-वन यादों के वृंदावन मेरी
मन माखन दे श्याम सलोने को फिर आज मना लेती हूँ।।