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चारो ओर हमारे कितने कंकर पत्थर बिखरे हैं / रंजना वर्मा
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चारो ओर हमारे कितने कंकर पत्थर बिखरे हैं
मन की आंखें खोल निहारो तो शिव शंकर बिखरे हैं
रोज़ सँवारा करते हैं हम चंद चुनिंदा ख़्वाबों को
कौन समझता है हम कितना मन के अंदर बिखरे हैं
नदियाँ पर्वत से ला कर हर रोज़ भरा क़रतीं लेकिन
कब यह जाना साहिल साहिल कई समन्दर बिखरे है
उम्मीदों के कई घरौंदे सजते रहते आँखों मे
अंदर अंदर सिमट गये सब बाहर बाहर बिखरे हैं
खुद में कैद कर लिया खुद को आँखें बन्द किये बैठे
देखा नहीं ज़माने में खुशरंग मनाज़र बिखरे हैं
देख गरीबी मुफ़लिस की बेबस आँखों की तनहाई
ये जाना जीवन राहों पर काँटे कंकर बिखरे हैं
हाथ उठाये रोज़ दुआएँ अल्ला से माँगा करते
वो क्या जाने भूखे बच्चे कैसे दर दर बिखरे हैं