अपनी अतिशयोक्तियों, ‘अश्लील’ कविताओं, आवारगी और मुश्किलों से भरी ज़िन्दगी में भी चार्ल्स बुकोवस्की (16 अगस्त 1920 – 9 मार्च 1994) मरते दम तक कवि ही रहे, इसके सिवा और कुछ भी नहीं । अपनी कविताओं और गद्य में उन्होंने उसी जीवन को शब्दों में पिरोया जो उन्होंने जिया । बेहिसाब शराबख़ोरी के बावजूद उनकी मेधा की धार में, न ही हास्यबोध में कोई कमी आई। उनके रूखे और उद्दण्ड से नज़र आने वाले व्यक्तित्व के पीछे एक कवि का बेहद कोमल मन था, जो अपने एकान्त की बेहद हिंसक होकर रक्षा करता था :
‘‘कभी-कभी मैं उसे रात में बाहर आने देता हूँ
जब लोग सो चुके होते हैं
मैं कहता हूँ,
मैं जानता हूँ तुम वहाँ हो
इसलिए मत हो
उदास
फिर मैं उसे वापस भीतर रख देता हूँ’’
यहाँ वे उन भावनाओं की बात करते हैं, जिनकी आँखों में आँखें डाल देखने से तथाकथित सभ्य समाज की कई वर्जनाएँ ध्वस्त हो जाएँगी ।
कई सालों तक उन्होंने लोगों से दूरी बनाए रखी । यह और बात है कि आर्थिक तंगी की वजह से बाद में उन्हें लगातार पोएट्री रीडिंग सेशंस में जाना पड़ा, जहाँ वह सराहे जाते रहे ।
रचनात्मकता के क्षणों को इतने गूढ़ पर साथ ही सरल नज़रिए से देखने की क़ूव्वत में बुकोवस्की अपने समकालीनों से बेहद आगे नज़र आते हैं :
‘‘जैसे कि
ऊपर बिजली के तार पर बैठी चिड़िया
इतनी उदात्त लगती है
जैसे बीथोवन का संगीत
फिर आप इसे भूल जाते हैं’’
यह बात निश्चित है कि बुकोवस्की के जीवन और जहाँ से वे आते थे, को समझे बिना उनकी कविताओं को समझना मुश्किल है, ख़ासकर उन्हें तो वह बिल्कुल निराश कर सकते हैं जो साहित्य में श्लील और अश्लील की कुण्ठाओं से अभी तक मुक्त नहीं हो पाए हैं और जीवन की विद्रूपताओं को जो उसके सबसे रूखे और ज़मीनी रूप में स्वीकार नहीं सकते। भारतीय कवियों की अगर बात करें तो मराठी के चर्चित कवि नामदेव ढसाल थोड़ा-सा उनके क़रीब पहुँच पाते हैं ।
बुकोवस्की को पढ़ते और सुनते हुए आप उन तथाकथित अश्लील शब्दों, जीवन की विसंगतियों, कटुताओं पर भी अनायास ही मुस्कुरा उठते हैं, जो उनकी कविता का एक बड़ा हिस्सा हैं। कुछ लोग उन्हीं शब्दों और रूपकों में ठहर जाते हैं और बुकोवस्की उनके हाथ से निकल जाते हैं । कमोबेश यही बात नामदेव ढसाल के साथ भी है, दोनों की कविताओं का विषय हाशिए का जीवन था, पर ढसाल की कविताओं का स्वर कहीं-कहीं क्रुद्ध होकर करुण हो उठता है, जबकि बुकोवस्की की कविताएँ जीवन की विद्रूपताओं की हँसी उड़ाती चलती हैं, अगर और गहरे उतरें तो उनमें दुख भी पूरी सघनता के साथ नज़र आता है। लेकिन बुकोवस्की उस दुख को हावी नहीं होने देते, वह दुखों को अपने शब्दों से बराबर की चोट देते चलते हैं — अपने भीतर बैठे उस कोमल कवि को बचाते हुए जो अन्त तक ज़िन्दा रहा । नामदेव ढसाल ने अपने क्रोध को लेखन के बाद राजनीति से सम्बोधित करने की कोशिश की और शायद यहीं वे हार गए। कवि की नियति, प्रारब्ध और मुक्ति अन्ततः कवि होने में ही है ।