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चार-छह लोगों के कंधों पर चढ़े हैं / विजय किशोर मानव

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चार-छह लोगों के कंधों पर चढ़े हैं
वैसे ये पुतले नहीं इतने बड़े हैं

आईने चुप हैं, हमें मालूम है क्यों,
बुतपरस्तों की हवेली में जड़े हैं

हमने अपने सहन में देखा है सूरज
और वो ऊंचाइयां लादे खड़े हैं

मंदिरों तक आ गए हैं जश्न देखो
मूर्तियों की गोद में प्याले पड़े हैं

सब यहां सूरे भला कैसे ख़बर हो
रोशनी के पांव दलदल में गड़े हैं

ग़म नहीं गै़रों से, फिर अपनों से हारे
ख़ुद से, साये तक से हारे जब लड़े हैं

मंदिरों में या कि मरघट में सजेंगे,
हम अभी से क्या कहें कच्चे घड़े हैं