चार चित्र एक सुबह / मोहन अम्बर
आज गीत का जन्म दिवस है अधरों निंदिया तोड़ो अपनी।
देखो दिखा न होगा यौवन
इस उषा के अरूण ओज-सा
केशर-केश धुला-सा काजल
बिंदिया चौदस-चांद दौज-सा
इस पर एक भटकती चिड़िया मुँह पर काले तिल जैसी है
रूप धरा पर उतर रहा है नजरों निंदिया तोड़ो अपनी
आज गीत का जन्म दिवस है अधरों निंदिया तोड़ो अपनी।
नदी कुँआरी प्रेयसि जैसी
प्रिय से मिल घर चली दौड़कर
किन्तु किरण-भाभी के डर से
खड़ी हो गई पीठ मोड़ कर
गंगा से भी अधिक पवित्रा उसकी शरम झील बन बैठी,
समझदार भैयाओं जैसे बजरों निंदिया तोड़ो अपनी
आज गीत का जन्म दिवस है अधरों निंदिया तोड़ो अपनी।
परदेसी प्रियतम आयेंगे
ऐसा कुछ आभास हुआ है
तभी धूप ने मुंह धोने को
नील ताल का नीर छुआ है
गजरे लेने गई बाग़ में पात-पात पर यह लिख आई
मिलन-घड़ी में कमी गंध की भंवरों निंदिया तोड़ो अपनी
आज गीत का जन्म दिवस है अधरों निंदिया तोड़ो अपनी।
परिश्रमी हरिजन पत्नी-सी
सुबह-सुबह की हवा चल गई
बड़े घरों की अकर्मण्यता
जिसके ऊपर बहुत जल गई
जिसकी सुघड़ चपल बाहों पर सूरज पंडित नज़र डालता
उसकी लाज बचाना हो तो नगरों निंदिया तोड़ो अपनी
आज गीत का जन्म दिवस है अधरों निंदिया तोड़ो अपनी।