चार पुरुष और स्वर्ण युगों पर शोकगीत-1 / विवेक निराला
हम चार दोस्त थे,
बिल्कुल आवारा, लेकिन
सँस्कृति के प्रश्नों को
अपने कन्धे पर उठाए
सँस्कृतिकर्मी कहलाने को उत्सुक।
हम अपने इतिहास को
लेकर सिर धुनते
हम जीवन के ठाठ अनश्वर
बिनते-चुनते ।
हम प्रश्नाकुल
दीवारों पर जगह-जगह
प्रश्नचिन्ह टाँगें
हम भोले बचपन-से
अपने-अपने उत्तर माँगें ।
सत्ता के गलियारों की
आपा-धापी में
अक्सर वन्दन अभिनन्दन
कीर्तन-भजन-पूजन ।
हम निर्जन में जैसे बन्दी
बहुत अकेले
पाँवों में चलने की सूजन ।
परम विकट पथ चुना हुआ
अपना ही था
यह थकान-सुस्ती-ढीलापन
अपना ही था
रेशे-रेशे बिखरा जीवन
अपना ही था ।
सन्नाटे में
प्रश्न-उत्तरों की उधेड़बुन
सभी शास्त्र-ग्रन्थों को पढ़-गुन
आगे बढ़ते अपनी ही धुन ।
यूँ तो संगी विरले मिलते हैं
फिर भी दोस्त बने थे चारों
कवि, क़िस्सा-गो
इतिहासकार और ख़बरनवीस ।
क़िस्सा-गो, वह प्रथम पुरुष
बेलगाम घोड़ों पर
हर समय सवार
किधर जाएगा, किसे ख़बर ?
उसके हाथों में काठ की
दो तलवारें हैं
माथे पर दुश्चिन्ताओं
की सतरें हैं
ख़ुद कहता है -- शापित है
उसने भी मुट्ठी तानी थी
दुर्वासा के शाप से इतना थर्राया
अब एड़ियाँ घिसा करता है ।
फूट रहा है कोढ़
इसलिए अँगौछा ओढ़
चिड़ीमार-सा
परिन्दे पकड़ता है, उड़ता है
अकेले में कुनमुनाता है
रोज़ एक नया क़िस्सा सुनाता है ।
द्वितीय पुरुष --
वह कवि जिसने
आस्तीन में साँप की तरह
आँखों में सपने पाले हैं
उनमें से कुछ को ही
सच होते देखा ।
कुछ सपने नाकामी के
कुछ भयावने
कुछ सपने
सपने तो क्या, गड़बड़झाले हैं ।
फिर भी नाउम्मीद नहीं है
उम्मीदों की फ़सल काटकर
अपनी ख़ाली जेबों को भर
वह आगे बढ़ता जाता है ।
अपने समय के जितना भीतर
उतना बाहर
वह वामन अपने छोटे क़दमों से ही
युग-युग को नापा करता है ।
छन्दों को तोड़ता-जोड़ता
जीवन की लय
पकड़ता-छोड़ता
प्रियवाची काव्य-पुरुष ।
तृतीय पुरुष --
इतिहासकार वह स्वतन्त्र ।
बहुत अहिंसक
युगों-युगों की राख कुरेदता
सत्य-शोधक ।
उसका जीवन अभिशप्त शिला
जिस पर नहीं लिखा गया
कोई लेख
कद-काठी का
गर्वोन्नत विजय-स्तम्भ ।
साम्राज्यों के उत्थान-पतन
की बातें करता
राज-व्यवस्थाओं का
वह विश्लेषक
अपनी झोली में
जब भी हाथ डालता है
एक नायाब चीज़ निकालता है ।
काले-लाल-धूसर मृदभाण्ड
सोने, चाँदी, चमड़े के सिक्के
कटी-फटी प्रतिमा
अथवा अन्नादि के जले हुए कण ।
अपने औजारों से वह
हथियारों को परखा करता
लिए हुए एक सन्दूकची
चलता-फिरता
सभ्यता का सांस्कृतिक अजायबघर ।
चौथा पुरुष -- पत्रकार
स्कूप तलाशता
दौड़ता-भागता
सम्पादकों पर लानतें भेजता
मालिक को गरियाता ।
चोरी-डाका-दुराचार
थाना-कचहरी-तहसीलदार
सबको साधते पस्त
लोकतन्त्र का चौथा पाया ।
अपने समाज का वह प्रहरी
समझा करता है
सत्ता की
सब चालें गहरी ।
पूर्वजन्म के नारदोचित
सँस्कारों से
जगह पर, समय पर उपस्थित ।