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चार पुरुष और स्वर्ण युगों पर शोकगीत-3 / विवेक निराला

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वसन्त की पहली सुबह
जब हम जागे
हमें सामने खड़ा मिला
एक दिव्य पुरुष ।
ऐसा जिसे देखते ही
उमड़ पड़े श्रद्धा ।

उसकी लाल-लाल आँखों
के भीतर एक साथ
चारों ने झाँका
और किसी सम्मोहन में
बँधकर बैठ गए
अपने से वँचित ।

उसने हमसे कुछ भी न कहा
इस तरह हमारे साथ रहा
उतने समय में भीतर-बाहर
कि हम आतँकित होने लगे थे ।

उसका होना
एक तड़प का होना था
एक छटपटाहट
उसके साथ चली आई थी
हमारे भीतर
इसीलिए भय था ।

हम चाहते थे कि बने रहें
हम जैसे हैं, वैसे ही
तो क्या हर्ज़ है ?

लेकिन, वह न तो हमें
और न दुनिया को
इस तरह देख सकता था ।
वह मौन में भी
सिर चढ़ कर बोलता जैसे
वह बोलता तो
श्रोता बेचैन हो उठते
वह अदृश्य होता
तो और गहरा जाता उसका एहसास ।

वह महात्मा नहीं
ज्ञानी नहीं वह
नास्तिक नहीं
अभिमानी नहीं
कोई नजूमी नहीं, वह प्रियंवद ।

वह चाहता था
कि हम जिएँ उसकी तरह
मगर वैसे हम जी नहीं सकते थे
वह चाहता था
कि हम सोचें उसकी तरह
मगर वैसे हम सोच नहीं सकते थे
वह चाहता था
कि हम हो जाएँ उसकी तरह
मगर हम उसकी तरह
व्याप्त नहीं हो सकते थे ।

अपनी छोटी-छोटी
सीमाओं के हम क़ैदी
उसका कहा नहीं मान पाए अभी ।
हमने हृदय से
उसके अभिनन्दन किए
असहायता की सारी लाचारी के साथ
फिर मिलने के आश्वासन पर
हम चारों
अलग-अलग दिशाओं में चले ।