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चार पुरुष और स्वर्ण युगों पर शोकगीत-5 / विवेक निराला

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हम चार पुरुष
चार दिशाओं में
जल, नभ, अग्नि और वायु
से आत्म-लज्जित
खाली हाथ लौटे हुए
जब मिले
तो एक दूसरे से गले लग-लग
खूब देर तक रोते रहे ।

शिशिर की घोर रात में
काँपते हुए
चार पुरुष हम
उस वसन्त का स्मरण करते
जिसमें मिला था दिव्य-पुरुष ।

यह अन्धेरी रात थी
और हम सब शीत से आतँकित
तभी हमें ईशान कोण से
आता हुआ
जलती हुई मशाल-सा
दीखा वह दिव्य-पुरुष ।

उससे हमने अपने सब
दुखड़े कह डाले
अपना-अपना आँखों देखा
सच बतलाया
हमने अपने घाव दिखाए
अपने भयावह अनुभव
उससे बाँटते-बाँटते
हम चारों
एक बार फिर रो पड़े ।

विलाप और करुणा के बीच
सिगरेट सुलगाते हुए
दिव्य-पुरुष घूमा ।

एक लम्बा कश खींचकर
हमारी ओर पीठ कर
ज़ोर से बोलना शुरू किया उसने
वक्तव्य दे रहा हो मानो
सम्बोधित करते हुए पूरा हिन्दुस्तान--
‘‘किसी स्वर्णयुग के
दमकते हुए सोने की
नक़्क़ाशी के भीतर
अगणित घाव
अनवरत रक्तस्राव ।

सबसे जोख़िम है इतिहास
में उत्खनन ।

सिंहासनों पर
बदलते हैं शासक जैसे-जैसे
सल्तनतें बदलती हैं
वैसे-वैसे निष्ठाएँ
और काल के पत्र पर
सरकारी मुहर के साथ
अँकित हो जाता है
अँगार के समान चमकता एक स्वर्णयुग ।

किसी भी कालखण्ड के
ज़ख़्म कभी नहीं भरते
वक़्त भर भी नहीं सकता
कोई ज़ख़्म
किसी युग के ज़ख़्मों से
रिसता हुआ लहू
इतिहास से ज़्यादा
साहित्य में दाखिल होता है ।

किसे कहते हो स्वर्णयुग --
जिसमें जागता है कवि
रात-रात भर
या वह जिसमें
रातें नागिन-सी डसा करती हैं
वह कौन सा स्वर्णयुग
जिसमें कोई फरियादी
निरन्तर रोने और
कभी भी नींद भर न सोने
की शिकायत करता है ।

कौन वह स्वर्णिम काल
जहाँ दुर्भिक्ष-अकाल
फटता है धरती का कलेजा
एक भूमिजा स्त्री
हार कर फिर
धरती में समा जाती है ।
अथवा समानता की माँग पर
एक दलित
क़त्ल कर दिया जाता हो जिसमें ।

इतिहास से बाहर
एक कविता
क़ैद कर लेती है
इतिहास-पुरुषों के
जूतों तक के निशान ।

इतिहास में सुरक्षित होंगे
अशोक महान् हो कर
वहीं, कहीं आस-पास
समुद्रगुप्त, विक्रमादित्य, अकबर
कितने शक, कितने हूण
कनिष्क के साथ कितने कुषाण
मंगोल, चोल, चन्देल
परमार, सिसोदिया और चौहान

लेकिन वह कौन स्वर्णिम अतीत
जब कोई कुचलवा दिया जाता है
उन्मत्त हाथी के पाँवों तले
किसी का हाथ
काट लिया जाता है ।

किस काल में होता है प्लावन
पोत में बचाए जाते हैं
किसी तरह बीज-ज्ञान
कब फटते हैं ज्वालामुखी
भूमि कब होती है कम्पायमान ।

सब कुछ निषिद्ध
होता है किस समय
खत्म हो जाते हैं
सारे अधिकार
शेष रह जाते हैं बस कर्तव्य ।

आप समझते होंगे
वह कौन-सा समय होता है
जब अन्धेरा
जीवन का
बीजशब्द बनता जाता है
हिंसक पशु
खुलेआम घूमा करते हैं ।

स्वर्णयुग
जो तुमने चाहे
मेरे लेखे
वह कठिन समय, वह बुरा समय ।

स्वर्णयुग के लिए
पीछे मत लौटो मेरे बच्चों
आगे बढ़ो
तुम्हारे बिना
कोई स्वर्णयुग होगा कैसे ?
तुम अपने भावी सपनों
का निर्माण करो
मायावी अतीत कारा है
इससे बाहर निकलो ।

इतना कह उस दिव्य-पुरुष ने
अपने बांए हाथ को झटका
सिगरेट
बुझ चुकी थी अब तक
जिसे उसने मसल कर फेंका ।

इससे पहले
कि उसके लम्बे वक्तव्य से
बाहर आ हम
कुछ कह पाते
वह काँपते हुए
एक प्रकाशवृत्त में बदला
और फिर गुम हो गया ।