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चार पुरुष और स्वर्ण युगों पर शोकगीत-7 / विवेक निराला

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हम चार दोस्त
निकले वन की ओर ।
वन दरोगा की आँख बचाकर
एक गिरे पेड़ को
खींचकर लाए ।
बनाए उसे चीर कर चैले
फिर उपलों के ऊपर धरकर
चिता बनाई ।

चौराहे पर
सिनेमा के पोस्टर
चिपकाने के लिए
रखी हुई बाँस की सीढ़ी
को हमने लालच से देखा ।

उसकी डाण्ड़ों को तोड़
कर हमने
उसे मूँज से बाँधा
और टिकठी की शक्ल दी ।

हम चार पुरुषों ने
उस पर
लिटा दिए
अपने-अपने अतीत के स्वर्णयुग ।
हम चारों ने
अर्थी को अपने
पुनर्शक्तिसम्पन्न कन्धे दिए ।
हमने अपने स्वर्णयुगों की
चिता जलाई
अपने-अपने मोह
को राख होते हुए देखा ।

हम चार पुरुषों ने
हम चार दोस्तों ने
मृत स्वर्णयुगों पर
मिलकर गीत लिखा ।

मोहभंग से
ऊपर उठकर
मानो हँसते हुए स्वयँ पर
वह शोकगीत यहाँ
फिर से गा नहीं सकते ।