चार बज गए / राम दरश मिश्र
मुर्गा बोला कहीं शहर में
उठो सुहागिन, चार बज गए!
क्या सोना आखिरी पहर में
उठो सुहागिन, चार बज गए!
बुला रहा है पार्क पड़ोसी
बुली रही हैं नई हवाएँ
बुला रही चिड़ियों की चहचह
बुला रहे हैं पेड़, लताएँ
भटका हो कोई न डगर में
उठो सुहागिन, चार बज गए!
जाग उठेंगे अरतन-बरतन
परस तुम्हारे कर का पाकर
भर देगा जीवन-स्वर घर में
किचन राग रोटी के गाकर
सब होंगे इक नए सफ़र में
उठो सुहागिन, चार बज गए!
तुममें अपनी सुबह समेटे
बच्चों, बहुओं को जाना है
शेष बचे घर के भी दिन को
साथ तुम्हारे ही गाना है
कितने काम पड़े हैं घर में
उठो सुहागिन, चार बज गए!
चौका छोड़ जांत पर जाना
इतना ही विश्राम तुम्हारा
घर के हर स्पंदन पर
अंकित-सा रहत है नाम तुम्हारा
थोड़ा सो लेना तिजहर में
उठो सुहागिन, चार बज गए!