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चार –सू जो खामुशी का साज़ है / मयंक अवस्थी



चार –सू जो खामुशी का साज़ है
वो कयामत की कोई आवाज़ है

तोड़ दे शायद अनासिर का क़फस
रूह में अब कुव्वते –परवाज़ है

ये धुँधलका खुल के बतलाता नहीं
शाम है या सुबह का आग़ाज़ है

किसलिये दिल में शरर हैं बेशुमार
क्यों ज़मीं से आसमाँ नाराज़ है

इंतेहा- ए ज़ब्र करता है वो अब
देख कर करता नज़र अन्दाज़ है

मिल गया शायद मुझे कोई अज़ीज़
यूँ निगह मेरी निगाहे नाज़ है