भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चार / रागिनी / परमेश्वरी सिंह 'अनपढ़'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मधु का प्याला इन होठों से तुम
लगा गई होती तो कितना अच्छा था

स्वाती चातक को कभी
नहीं तड़पाता है
सागर से बिछड़ा बादल
फिर लौट-लौट कर आता है

तुम लौट सको तो ये मेरा
बीरान चमन बन जाए
प्राणों के बुझते दीप
तुरंत जल जाए

मैं जीता हूँ यह सुनकर
कि तुम जीती हो
मैं रोता हूँ यह सुनकर
की तुम भूल मुझे रस पीती हो

एक बार हमारी दुनिया भी तुम
सजा गई होती तो कितना अच्छा था
आँसू के भरे कटोरे में
मधु की दो बूँद गिरा देती
मैं पी लेता भर पेट और
ये आँखे तो रोती होती

कल थे कितने वादे तेरे
बस आज भूल कर बैठी तुम
जीवन के स्वर्गिक आनंद को
बस आज धूल भर ऐंठी तुम

विष का प्याला पीकर कोई
इस दुनिया में हँसता होगा
जिस तरह जला संसार मेरा
वैसे किसका जलता होगा

सपनों के रोते बच्चों को तुम
सुला गई होती तो कितना अच्छा था

मधु का प्याला इन होठों से तुम
लगा गई होती तो कितना अच्छा था