चालीस के बाद, पचास के पहले / मुकेश कुमार सिन्हा
चालीस के बाद, पचास के पहले
है एक अलग सा उम्र डगर
जब तय कर रहा होता है पुरुष मन!
होती है जिंदगी के राहों में
उच्छ्रिन्खल व उदास मध्यांतर!!
शारीर तय कर रहा होता है सफ़र
निश्चिन्त शिथिलता के साथ
ढुलमुल पगडंडीयों पर!!
मन कभी कभी कहता है
जवान होते बेटे की
लिवाइस जींस व टी शर्ट को
करूँ एक आध बार ट्राय
लोटटो के स्पोर्ट्स शूज के साथ पहन कर!!
पर, ये बात है दिगर
वही मन, उसी समय समझाता है
छोडो ये सब, चलों चले
कुछ फॉर्मल या लम्बा कुर्ता पहन कर!!
इसी उम्र में, होती है अजीब सी चेष्टा
युवती को सामने देख
करते हैं कोशिश, हो जाए सांस अन्दर
ताकि दिख न पाए ये उदर!!
कानों के ऊपर, सफ़ेद होते बालों की चमक
हर नए दिन में कह ही देती है
लानी ही पड़ेगी, गार्नियर हेयर कलर!!
बातों व तकरारों में हर समय होता है विषय भोजन
ब्लडप्रेशर व शुगर के रीडिंग पर पैनी रहती है नजर
कभी सोया या सूरजमुखी आयल की प्रीफेरेंसेस
तो कभी करते हैं मना, मत दिया करो आलू व बटर!!
पर फिर भी नहीं रख पाते ध्यान
बढ़ रहा होता है बेल्ट व पेंट का नंबर
चश्मे के पावर की वृद्धि के समानुपाती
होती है, अन्दर घट रहा शारीर का पावर!!
उम्र का ये अंतराल, है एक रेगिस्तानी पडाव
जब होता है अनुभव, होता है वो सब
जो हासिल करने की, की थी कोशिश हरसंभव
जो भरता है आत्मविश्वास, रहती है मृगतृष्णा
पर फिर भी, दरकती है उम्मीदें
काश!! और भी कुछ! बहुत कुछ!!
चाहिए था होना, कोसते हैं खुद को
काश कुछ और कोशिशें कामयाब हो जाती!
चलो अगले जन्म में,
पक्का पक्का, ऐसा ही कुछ करना!!
सुन रहे हो न रहबर!!