भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चालीस साल / विनोद दास

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चालीस साल पहले
उसके जिस लावण्य को देख कर
थरथराने लगते थे मेरे होंठ
चढ़ आता था वासना को बुखार
वह अब ज़ल्दी आँख के दायरे में भी नहीं आता

चालीस साल में
हम जान पाए हैं एक दूसरे को
थोड़ा -थोड़ा
जिस तरह पत्तियाँ जानती हैं हवा को
धीरे-धीरे डोलते हुए

जितना जानते जाते थे उससे कई गुना
बचा रह जाता था जानना हर बार

यह जानना आकाश की तरह था
देखने से कभी ख़त्म ही नहीं होता था

डूब गईं चालीस साल की अमूल्य रातें
थकन की नदी में
न गिन पाए आकाश के पूरे सितारे
न ही की चान्द से मीठी गुफ़्तगू
आकाश गंगा की सैर भी न की
हम, बस, खर्राटे भरते रहे
या खोजते रहे देह की कुंजी

वह भी कहाँ मिली
कितनी अपूर्णताएँ कितना पछतावा कितनी टूटन
हमारे सुख बिस्तर से बाहर मुँह चिढ़ा रहे थे

चालीस साल में
जो छूट गया था हमारे बीच
चालीस साल बाद उसे खोज रहे हैं हम
अपनी झुर्रियों में अपने चांदी से बालों में
अपने दांतों की खोखल में

एक उम्र के बाद
कुछ चीज़ें खोजना बेहद मुश्किल है
चाहे माथे पर अटका चश्मा हो
या अपनी वंशावली और काग़ज़ात
अपने होने को साबित करने के लिए

वजूद के नोकीले कोने झर गए हैं
बालों की तरह
फिर भी हमारी तकरारों की अनन्त कथाएँ हैं
उनसे जितना भी बचना चाहो
नाख़ूनों की तरह बढ़ ही जाती हैं

निराशाएँ अब हमें हराने की प्रतिस्पर्धा नहीं करती हैं
आशा बलवती है कि अब हमें ज़्यादा दिन नहीं रहना है
हर रोज़ क्रूर होती इस दुनिया में
जहाँ हाँके की तरह घेर कर मार दिया जाता है आदमी
अपने पहनावे के लिए
खान-पान के लिए
अपनी प्रार्थना के लिए

जहाँ घृणा प्रेम को पीटती है
बहुमत के बल से

चालीस साल
भागती दुनिया के कारोबार में
दौड़कर बस पकड़ते हुए
हम उन क्षणों को छू भी नहीं पाए
जहाँ कामनाएँ सुख की बारिश की तरह हमें भिगोती हैं
अब जब ठहरे हुए समय में हम उन्हें छूते हैं
लगता है कि जैसे पिछले चालीस साल रहे हो कुँवारे

वह मेरे होठों के कोरों में लगा चावल का एक दाना
प्यार से हटाती है
मैं उसका हाथ पकड़ता हूँ
ज़मीन से
उठकर खड़े होने के लिए

हर क्षण
विरह का डर हमें सताता रहता है
और ज़िन्दगी लता सी हमसे लिपटती रहती है