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चालीस सीढ़ी पार कर / योगेन्द्र दत्त शर्मा

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चालीस सीढ़ी पार कर
गुंजाइशों को हारकर
बैठे हुए मन मारकर योगेन्द्र तुम!
दुनिया भले कुछ भी कहे
यों व्यंग्य भी तुमने सहे
हर बार चर्चा का-रहे हो केन्द्र तुम!

अब और क्या दुविधा रही
तुम सोचते बेकार ही
चीजें सदा अनुसार ही चलतीं कहां!
क्या पा लिया संघर्ष में
पहुंचा गया अपकर्ष में
उस मूल्य, उस आदर्श में गलती कहां!

तुम चेतना संपन्न गति
घनघोर प्रत्युत्पन्न मति
भीतर रहे अवसन्न अति चुपचाप-से!
सारी तरल गरमाहटें
अब बन गईं कड़वाहटें
आतीं नहीं अब आहटें उस थाप से!

तुम दूसरों से हो अलग
अविकल्प, धु्रव, ज्योतिर्विहग
तुमको तुम्हारी यह सजगता खा गई!
है किस कथा का अंश यह
मन में तुम्हारे दंश यह
निर्गन्ध-सी निर्वंश यह प्रतिभा गई!

निर्धूम जलते रात-दिन
पीते सतत हिम की अगिन
डूबासरल मन का पुलिन किस बाढ़ में!
लेकर विरल खंडित हृदय
हर ओर सहकर लोकभय
धंसते रहे निर्मम समय की दाढ़ में!

अपने समय से सीखते
जो थे न तुम, वह दीखते
अब क्यों वृथा ही चीखते हो यार तुम!
तुम पृष्ठ थे इतिहास के
अब पात्र हो उपहास के
ओझल, विगत आभास के आकार तुम!

सीखा न जीवन का गणित
झेली अस्वीकृति की तड़ित
तुम अब हतप्रभ-से, जड़ित-से हो गये!
खोजी जहां तुमने वजह
तुमको मिली केवल सतह
तल से अतल तक नागदह में खो गये!

देखी समय की बेरुखी
तुम हो गये बेहद दुखी
घुटता रहा ज्वालामुखी भीतर कहीं!
तुम क्यों बने इतने कड़े
देखी विसंगति, फट पड़े
क्यों मूक दर्शक बन खड़े, देखा नहीं!

व्यापार हों रिश्ते जहां
मन खोलना कैसा वहां
स्वीकार की सुविधा कहां उपलब्ध है!
क्या है गलत, क्या है सही
यह कब बताती है बही
अब मान भी लो, बस यही प्रारब्ध है!

आधे-अधूरे से नमन
बीते सभी आवागमन
करते नदी के आचमन की याद क्यों!
ये मौन छूटे हाशिये
अब हैं तुम्हारे ही लिए
बैठे हुए मन में लिये अवसाद क्यों!
-24 सितंबर, 1990