भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चावल, चीनी और आटे पर रोना था / के. पी. अनमोल
Kavita Kosh से
चावल, चीनी और आटे पर रोना था
यानी मन भर सन्नाटे पर रोना था
हँसने लगा मैं उस पल भी जिस पल मुझको
जीवन भर के हर घाटे पर रोना था
आँख खुली जब, चिड़िया ने चुग डाले खेत
अब क्या, अब तो खर्राटे पर रोना था
सबके सब थे मीठे-मीठे ज़ह्र बुझे
और मुझे सबके काटे पर रोना था
जिस पर तुमने जागीरें न्योछावर कीं
तलवो! तुमको उस चाटे पर रोना था
सदियाँ गुज़रीं लेकिन हासिल कुछ भी नहीं
हमको ऐसे फ़र्राटे पर रोना था
जो पन्ने अनमोल थे जीवन-पुस्तक के
इक-इक कर सबके फाटे पर रोना था