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चाव सौं चले हौं जोग-चरचा चलाइबै कौं / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’
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चाव सौं चले हौ जोग-चरचा चलाइबै कौं
चपल चितौनी तैं चुचात चित-चाह है ।
कहै रतनाकर पै पार न बसैहै कछु
हेरत हिरैहैं भरयौ जो उर उछाह है ॥
अंडे लौं टिटहरी के जहै जू बिबेक बहि
फेरि लहिबै की ताके तनक न राह है ।
यह वह सिंधु नाहिं सोखि जो अगस्त्य लियौ
ऊधौ यह गोपिन के प्रेम कौ प्रबाइ है ॥66॥