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चाहती मौन हो रहूँ कहूँ प्रिय तुमसे उर-उच्छ्वास नहीं। / प्रेम नारायण 'पंकिल'

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चाहती मौन हो रहूँ कहूँ प्रिय तुमसे उर-उच्छ्वास नहीं।
पर हाय! निगोड़ी चीख उठी इस रसना का विश्वास नहीं।
मेरे विधु-मुख पर रख सहसा निज पीत-वसन का अवगुण्ठन।
तुम ललक-ललक चूमते उझक थे प्रिय मेरे सलज्ज लोचन।
निज अधर-तृप्त-ताम्बूल तरल मेरे दशनों में दबा-दबा।
मेरे उर पर द्रुत फेर कंज कर देते थे गुदगुदी जगा।
दर्शन दो मधुबन-मीत! विकल बावरिया बरसाने वाली ।
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली ॥60॥