भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चाहती हूँ एक आजाद जिन्दगी / सबिता गौतम दाहाल / सुमन पोखरेल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जिन्दगी से लिपटकर जिन्दगी
एक उम्रदराज दरख्त सी हो गयी है
मैं इन लताओँ को
ना तो काट कर फेंक सकती हूँ, न उखेडकर ।

क्या करूँ
तन्हा पीपल न हो सकी
तन्हा बरगद न हो सकी
तपस्या या समाधी में खो न सकी
दश्त का दरख्त सी हो गयी है जिन्दगी ।

जिन्दगी से लिपटकर जिन्दगी
एक पुरानी घर सी हो गयी है
इस घर को तोड सकती हूँ न बगल से कुछ हटाना ।

क्या करूँ
खिडकी से नजर आने वाला दश्त-ए-देवदार
या गौरैया का सफर
या सब्ज खेत नजर आनेवाली
लम्हा भर का मुस्कुराहट ला न सकी लबों पे
पुराना शहर की पुरानी घर सी हो गयी है जिन्दगी

जड गडे हुए दरख्त
पुराने किस्म के घरोँ के नमूने
मसगुल हैँ अपनेअपने खुदगर्ज तारिख गाने में ।

क्या करूँ
मैं न उम्रदराज दरख्त चाहती हूँ, न पुरानी घर
सिर्फ चाहती हूँ एक आजाद जिन्दगी ।