भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चाहत निकारत तिन्हैं जो उर अन्तर तैं / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चाहत निकारत तिन्हैं जो उर-अन्तर तैं
ताकौ जोग नांहि जोग मन्तर तिहारे में ।
कहै रतनाकर बिलग करिबे मैं होति
नीति विपरीत महा कहति पुकारे में ॥
तातैं तिन्हैं ल्याइ लाइ हियँ तैं हमारे बेगि
सौचियै उपाय फेरि चित्त चेतवारे में ।
ज्यौं-ज्यौं बसे जात दूरि-दूरि प्रान-मूरि
त्यौं-त्यौं धँसे जात मन-मुकुर हमारे में ॥80॥